बुधवार, 2 अक्तूबर 2013

राहुल गांधी आपको देश का प्रधानमंत्री क्यों बना दें?


आपको कितना प्रशासनिक अनुभव है  ? 
आप किस राज्य के मुख्यमंत्री रहे हैं ?
 किस केन्द्रीय मंत्रालय में बतौर मंत्री काम किया है आपने ?

दागी जनप्रतिनिधियों वाले अध्यादेश और बिल को सिंह इज नाट किंग वाली मनमोहन सिंह केबिनेट ने वापस लेने का प्रस्ताव पारित कर राहुल और सोनिया गांधी का असली चेहरा सामने ला दिया है। दरअसल सोनिया और राहुल गांधी सत्ता तो चाहते हैं पर जिम्मेदारी और जवाबदेही से बचना ही नहीं भागना चाहते हैं। इससे यह साबित होता है कि दस साल पहले प्रधानमंत्री पद त्यागने का सोनिया का निर्णय ढकोसले के अलावा और कुछ था ही नहीं । अभी तक जनता- जनार्दन सुनती आई े थी कि वे सोनिया और राहुल गांधी परदे के पीछे से सरकार चलाते हैं पर यह सब कैसे होता है इसका सीधा प्रसारण राहुल गांधी ने दिल्ली के प्रेस क्लब से नानसेंस वाले बयान से कर दिया। चूंकि प्रधानमंत्री देश में नहीं थे इसलिए दोनों की कलई भी खुल गई। राहुल अगर देश चलाना चाहते हैं तो उनका स्वागत है पर देश परदे के पीछे से नहीं जिम्मेदारी और जबाबदेही से चलता है। पर आपको हम देश क्यों चलाने दें? क्या है आपका प्रशासनिक अनुभव? क्या आप कसी राज्य के 5 से दस साल तक मंत्री रहे हैं? क्या आपने केन्द्र सरकार के किसी महकमे में बतौर मंत्री काम किया है?
जैसे: कांग्रेस में पी चिदम्बरम बरसों तक वित्तमंत्री और गृह मंत्री रहे, पृथ्वीराज चौहान केन्द्र में मंत्री रहे और अब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री हैं, सलमान खुर्शीद सालों तक विदेश मंत्रालय संभाला है, कपिल सिब्बल दस साल से मंत्री हैं, कमलनाथ भी राजीव गांधी के जमाने से विभिन्न मंत्रालय संभाल चुके हैं। शीला दीक्षिते भी तीन पारी से दिल्ली की मुख्यमंत्री हैं। मंत्री बनने से पहले ये लोग संगठन में भी काम कर चुके हैं।
भाजपा के नरेन्द्र मोदी की मुख्यमंत्री के रूप में तीसरी पारी है। मध्यप्रदेश में शिवराजसिंह चौहान और छत्तीसगढ़ में रमनसिंह की दूसरी पारी का अंतिम दौर चल रहा है। तीसरा चुनाव उनके सिर पर है। सुषमा स्वराज कई सालों तक मंत्री रहने के बाद अभी लोकसभा में विपक्ष की नेता हैं। अरूण जेटली भी लंबे समय तक मंत्री रहे हैं। दिल्ली क्रिक्रेट कंट्रोल बोर्ड चलाते हैं। सुप्रीम कोर्ट के नामी वकील भी हैं। भाजपा के से सभी नेता संगठन के महत्वपूर्ण पदों पर रहे फिर उन्हें सत्ता में भागीदारी मिली।
यानी कांग्रेस और भाजपा में जो भी लोग अभी अग्रिम मोरचे पर हैं उन्होंने स्टेप बाय स्टेप पहले राजनीति और फिर प्रशासन चलाने की कला सीखी। राहुल अभी आप कांग्रेस के सिर्फ उपाध्यक्ष हैं। इतना ही काफी नहीं है प्रधानमंत्री बनने के लिए। राजीव गांधी की ताजपोशी की स्थिति और थी। इंदिरा गांधी की मृत्यु के बाद उन्हें कांग्रेस का नेता चुना गया। इसके अलावा पायलट के रूप में उन्हें लंबा अनुभव भी था। विमान का पायलट रोज हजारों जिंदगियों को जिम्मेदारी और जबाबदेही से लाता ले जाता है। अगर आप गांधी परिवार का ठप्पा हटाकर अगर विदेश में नौकरी तलाशें मेरा दावा है कि आपको पचास हजार रुपए की नौकरी पाने में पसीना आ जाएगा। विदेश में इसलिए भारत में आपको नौकरी देने की हिमाकत किसी के पास नहीं है।
अगर आप प्रधानमंत्री बनकर देश की सेवा का सपना देख रहे हैं तो यह आपका लोकतांत्रिक हक है। लेकिन मेरा अनुरोध इतना है कि किसी राज्य के मुख्यमंत्री या किसी विभाग के पांच साल मंत्री रहकर काम करें। इससे आपको प्रशासनिक अनुभव मिलेगा। आपकी दादी श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपने पिता और देश के पहले प्रधानमंत्री पं जवाहरलाल नेहरू के कार्यालय में गैर सरकारी निजी सहायक के तौर पर काम किया। पं नेहरू के निधन के बाद वे राज्यसभा सदस्य मनोनीत हुईं। लालबहादुर शास्त्री के मंत्रिमंडल में वे सूचना और प्रसारण मंत्री रहीं। इसके बाद कहीं जाकर वे प्रधानमंत्री बनीं। जब देश गुलाम था तब कांग्रेस के नेताओं की मदद के लिए उन्होंने युवाओं की वानर सेना बनाई थी। यह काफी चर्चित थी।
अब परिवारवाद के दम पर तभी राजनीति चलेगी जब आप सक्षम होंगे। कारण कि राज्यों प्रशासनिक अनुभव वाले नेताओं की लंबी फौज तैयार हो चुकी है। यह अपने काम के दम पर ही खम ठोक रही है। इनमें गैर कांग्रेसी नेताओ का बोलबाला है। जैसे नरेन्द्र मोदी, शिवराज सिंह चौहान, रमनसिंह, नीतिश कुमार, नवीन पटनायक, ममता बनर्जी, उमर अबदुल्ला, जयललिता आदि। लिहाजा गांधी होने के ज्यादा जरूरी है योग्यता, जिम्मेदारी और जवाबदेही का होना। गांधी होने के आपको बोनस प्वांइट मिलेंगे और मिलना भी चाहिए। कारण कि भारत में तो माना जाता है कि बाप-दादाओं का जस तो आपको मिलता ही है।

शनिवार, 28 सितंबर 2013

मनमोहन के पास दो लेकिन कांग्रेस के पास एक ही है विकल्प


दागी जनप्रतिनिधियों  को बचाने के लिए लाए गए अध्यादेश की कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने जिन शब्दों में किरकिरी की है उसके बाद राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि अब प्रधानमंत्री क्या करेंगे या उनके पास क्या विकल्प हैं। उनके पास दो ही विकल्प हैं। पहला या तो इस्तीफा दे दें अथवा दूसरा अध्यादेश को वापस लेते हुए राहुल गांधी की बात मान लें। मनमोहन के पास भले ही दो विकल्प हों पर कांग्रेस के पास एक ही विकल्प है। वह यह कि कैसे भी हो मनमोहन सिहं चुनाव तक पद पर बने रहें और कांग्रेस की असफताओं का दोष अपने सिर पर झेलते रहे। 

मनमोहन के विकल्प
@विकल्प 1 - प्रधानमंत्री विदेश से आते ही अपना इस्तीफा राष्ट्रपति को सौंप दें।
@क्या ऐसा होगा - ऐसा होगा इसकी संभावनाएं कम ही नजर आ रही हैं। कारण कि इससे पहले भी इससे भी कई विकट परिस्थितियां आईं थी लेकिन मनमोहन ने मौन रहकर काम करते रहे। अब चुनाव को आठ से दस महीने का समय बचा है। ऐसे में चुनाव तक पद पर बने रहें।
@अगर ऐसा हो गया तो- अगर प्रधानमंत्री इस्तीफा दे देते हैं तो कांग्रेस की स्थिति खराब हो जाएगा। फिलहाल कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं है तो उनका स्थान ले सके। राहुल प्रधानमंत्री बनकर यूपीए-2 सरकार के खराब प्रदर्शन की जिम्मेदारी लेकर जनता के बीच जाते हैं तो उनकी और कांग्रेस दोनों की स्थिति खराब होगी। या कांग्रेस समय से पहले लोकसभा भंग करवाकर चुनाव का ऐलान करे। प्रधानमंत्री के पूर्व सलाहकार संजय बारू ने शुक्रवार को यह कहा था कि अब प्रधानमंत्री को भारत आते ही इस्तीफा दे देना चाहिए। दरअसल यह कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को एक इशारा था कि वे स्थिति को संभाल लें। सिर्फ इसी आशंका के चहते कि कहीं राहुल ने नानसेंस उर्फ बकवास वाले बयान से आहत होकर कहीं प्रधानमंत्री इस्तीफा न दे दे सोनिया गांधी ने राहुल से प्रधानमंत्री के नाम चिट्ठी लिखवाई। इसे डेमेज कंट्रोल की ही कवायद माना जा रहा है।
@निष्कर्ष: प्रधानमंत्री के रूख को देखकर कहा जा सकता है कि उनके इस्तीफा देने की संभावना नहीं है अगर उन्हें इस्तीफा देना ही होता वे न्यूयार्क से ही इस्तीफ फैक्स कर देते। दूसरा कांग्रेस फिलहाल उनके इस्तीफे के बोझ को ढोने की स्थिति में नहीं है। कारण कि इस्तीफे के बोझ में उनके युवराज का भविष्य दब जाएगा। कांग्रेस समय से पूर्व भी चुनाव झेलने की स्थिति में नहीं है पर यह तय है कि प्रधानमंत्री के रूप में अब मनमोहन की पारी का अंतिम अंतिम ओवर आ चुका है। उनकी बिदाई तय है। यानी राहुल के नेतृत्व के लिए तैयार हैं।
@विकल्प 2 - प्रधानमंत्री विदेश से आते ही केबिनेट और कांग्रेस कोर ग्रुप की बैठक बुलवाकर इस अध्यादेश पर विचार करें।
@क्या ऐसा होगा - ऐसा ही होने की संभावना अधिक है। इसमें भी दो विकल्प हैं। पहला मनमोहनसिंह विदेश से ही आते ही केबिनेट की बैठक में इस पर विचार कर खुद ही इस विधेयक को राष्ट्रपति के पास से वापस मंगवाने का प्रस्ताव पारित करवा सकते हैं। दूसरा पहले कांग्रेस कोरग्रुप की बैठक में राय बनाकर अथवा सोनिया गांधी से चर्चा कर उसके अनुसार कैबिनेट में प्रस्ताव लाकर अध्यादेश को वापस मंगवा सकते हैं।
@अगर ऐसा हो गया तो- प्रधानमंत्री इसमें जो कुछ भी करेंगे वह कांग्रेस कोरग्रुप के बिनाह पर ही होगा। पहले भी वे अध्यादेश कांग्रेस कोरग्रुप और प्रमुख मंत्रियों की सलाह के बाद ही लाए थे। अब यह संदेश देने की कोशिश करेंगे कि सामूहिक फैसले को समीक्षा के बाद बदला जा रहा है।
@निष्कर्ष: इससे प्रधानमंत्री की गरिमा कम होगी। हो सकता है कि उनकी नीतियों पर और भी कांग्रेस संगठन की ओर से प्रहार किए जाएं और उन्हें अंतिम ओवर तक टिके रहना है। इसका मतलब यह है कि अब कांग्रेस में युवराज कहेंगे वही सही होगा। अब युवराज के बयान से कांग्रेस इतना आगे निकल आई है कि अब उसके पास अध्यादेश को वापस लेने के अलावा और कोई दूसरा रास्ता बचा ही नहीं है।

खाता न बही, राहुल कहें वही सही


देश के गैर गांधी प्रधानमंत्रियों की कार्यशैली के प्रति नाराजगी जताना गांधी परिवार का पुराना शगल है। लोकतंत्र है तो सभी को अपनी बात रखने का हक है लेकिन  गांधी  परिवार के सदस्य तभी नाराजगी जताते हैं जब उन्हें कांग्रेस की राजनीति के केन्द्र में आना होता है। याद कीजिए नरसिम्हाराव के प्रधानमंत्री रहते रायबरेली में आयोजित सभा में सोनिया गांधी ने राव की कार्यशैली पर सवालिया निशान उठाए थे। उसके बाद भी सोनिया कांग्रेस की राजनीति में सक्रिय और प्रभावी हुई। अब राहुल गांधी ने उससे भी एक कदम आगे बढ़ते हुए दागी जनप्रतिनिधियों के मुद्दे पर केन्द्रीय मंत्रिमंडल और कांग्रेस कोर के फैसल को बकवास और फाडऩे लायक बता दिया। यानी कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और उनके सलाहकारों पर भी राहुल की अंगुली उठी है।

यानी कांग्रेस अब राहुल युग की ओर 

दागी जनप्रतिनिधियों पर अध्यादेश तो बहाना है राहुल ने इसके बहाने यह साबित करने की कोशिश की है कि अब कांग्रेस में उनके बिना तो कोई निर्णय हो ही नहीं सकता। और यदि किसी ने किया तो उसका हाल ही नानसेंस उर्फ बकवास की ही तरह होगा। यानी सत्ता के केन्द्र को उन्होंने अपनी ओर घुमाना शुरू कर दिया है। वे या उनकी शह पर उनके समूह के लोग भी अब केन्द्र सरकार की कार्यप्रणाली पर और भी सवाल उठा सकत हैं। मसलन अपनी ही सरकार को घेर कर वे ये संदेश देने की कोशिश कर सकते हैें की सत्ता और संगठन कांग्रेस की दो अलग-अलग धुरियां हैं। लोकसभा चुनाव तक युवराज और उनकी टीम इस तरह के और भी ड्रामे कर सकती है। ताकि चुनाव का बैटन मनमोहन के हाथ से राहुल के हाथ में दिया जा सके।

सोनिया गांधी और उनके सलाहकारों के प्रति भी रोष 

राहुल ने जिस फैसले पर सवाल उठाए थे उसमें उनकी माता, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया  और उनके सलाहकार भी शामिल थे। यानी उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष और उनके सलाहकारों पर भी सवाल उठाए हैं। दरअसल सोनिया गांधी यूपीए-1 में जितनी प्रभावी थी अब उतनी नहीं रहीं। यूपीए-2 गठबंधन राजनीति की विवशता के नाम पर उनके सलाहाकर ज्यादातर मुद्दों पर उनसे सहमति बनवा लेते हैं। जैसा कि दागी जनप्रतिनिधियों के मुद्दे पर हुआ। दरअसल राहुल गांधी के जेहन में कहीं न कहीं यह बात भी होगी कि उनके पिता राजीव गांधी की छवि कुछ सलाहकारों के कारण काफी प्रभावित हुई थी। इसी कारण राजीव को सत्ता से बाहर जाना पड़ा था। दूध का जला छांछ को भी फंूक-फंूककर पीता है लिहाजा राहुल ने यह कोशिश भी है कि अब इन सलाहकारों को कांग्रेस की निर्णय प्रक्रिया से  जितना दूर रखा जाए उतना ही कांग्रेसकी सेहत के लिए अच्छा होगा। सोनिया के सलाहकारों में ज्यादातर कांगे्रस के पुराने नेता हैं। राहुल ने कहा था कि अब सभी दलों को राजनीति के नाम पर किए जाने वाले समझौते बंद करने होंगे। यानी वे नहीं चाहते कि सोनिया समझौते वाली राजनीति करे-खासकर यूपी और बिहार के सबंध में।

राहुल के सलाहकारों की राजीतिक समझ कम

राहुल के सलाहाकार ज्यादातर उन्हीं की उम्र के युवा हैं। कुछ राजनीति के जुड़े हैं तो कुछ प्रबंधन से। इन्हें राजनीति का अनुभव कम है। अन्यथा राहुल को ये इस तरह बयान नहीं देने देते। अनुभव की कमी से ही ये इस बयान से होने वाले साइड इफैक्ट पर विचार नहीं कर सके। अन्यथा वे सलाह देते कि कांग्रेस वर्किग कमेटी की बैठक बुलाकर वे उसमें अपनी नाराजगी रखते और अध्यादेश को खारिज करने की मुहर कांग्रेस वर्किग कमेटी से ही लगवाते। इससे उनका राजनीति कद बढ़ता। अभी राहुल के विरोध को राजनीतिक नासमझ भी समझा जा रहा है। पिछले कई दिनों से सत्ता- संगठन के पुराने सलाहकारों और राहुल के नए सलाहकारों के बीच शीतयुद्ध की फुसफुसाहट की सुनाई दी। लेकिन ये सलाहकार सिर्फ सत्ता के केन्द्र के आस-पास रहने वाले हैं।  उन्हें व्यक्ति से नहंी अपनी महत्वाकांक्षाओं से मतलब होता है।  दागी अध्यादेश के जरिये ही राहुल ने अपनी महत्वाकांक्षाओं की पंतग को राजनीति के आसमान में छोड़ दिया है। राहुल के बयान के बाद दागी विधेयक की वकालत करने वाले कांग्रेसी नेता भी मिमियाते नजर आ रहे हैं। इससे तो यही लगता है कि अब कांग्रेस में यही चलेगा कि खाता न बही, राहुल कहे वही सही।

शुक्रवार, 27 सितंबर 2013

राष्ट्रपति के रूख से राहुल बने कांग्रेस के एंग्री यंग मैन


  1. राष्ट्रपति अध्यादेश को वापस करें इससे पहले ही कांग्रेस ने इशारा समझते हुए राहुल के माध्यम से अध्यादेश वापस लेने की भूमिका बना दी, लेकिन  सवाल यह है कि राहुल इतने दिन चुप क्यों थे
  2. राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनना हो तो वे आज बन जाएं पर इस पद की गरिमा का ख्याल रखें
  3. युवराज के जाने-अनजाने बयान से यह तय है कि यह मनमोहनसिंह की चला-चली की बेला है

मतौर पर राष्ट्रपति के पद को शोभा का सिंहासन माना जाता है शक्ति का नहीं। वर्तमान राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने साबित कर दिया है कि अगर संविधान का सही ज्ञान और नीयत साफ हो राष्ट्रपति के एक इशारे पर सरकार दंडवत करती नजर आती है। यही कारण है कि सजायाफ्ता जनप्रतिनिधियों को बचाने के लिए केन्द्रीय मंत्रिमंडल की ओर से राष्ट्रपति को भेजे गए अध्यादेश को कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने शुक्रवार को बकवास और फाडक़र फैंकने लायक बताकर खारिज कर दिया। 
इस अध्यादेश पर भाजपा के विरोध के बाद जब राष्ट्रपति ने गुरूवार शाम को प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह की अनुपस्थिति में गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे, कानून मंत्री कपिल सिब्बल और संसदीय कार्यमंत्री कमलनाथ को तलब कर पूछा था कि ऐसी क्या आपातकालीन परिस्थितियां हैं जिनके चलते  अध्यादेश लाना जरूरी है। साथ में उन्होंने अध्यादेश के साथ एटार्नी जनरल और सोलिसिटर जनरल की कानून राय न भेजने पर भी नाराजगी जताई थी। तब कांग्रेस को लगा कि राष्ट्रपति अपने वीटो पावर का इस्तेमाल कर अध्यादेश के मसौदे को वापस भेज सक ते हैं। किरकिरी से बचने के लिए कांग्रेस ने रातों रात दिल्ली में प्रेस क्लब बुक किया और वहां  राहुल गांधी कांग्रेस की  प्रेस कान्फ्रेंस में अचानक प्रकट हो गए। 
 प्रधानमंत्री की अनुपस्थिति में डेमेज कंट्रोल के राहुल से बेहतर और कोई विकल्प कांग्रेस के पास था ही नहीं। मसकद दो थे। पहला यह कि क्रेडिट राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी और विपक्ष को मिले और दूसरा यह कि लाने के बाद इसे रूकवाने का क्रेडिट भी कांग्रेस को मिले। बकवास और फाडऩे लायक जैसे शब्दों के प्रयोग कर राहुल गांधी ने अपनी सरकार और कोरगु्रप को सकते में ला दिया। प्रधानमंत्री पद की गरिमा को कम किया सो अलग।अब प्रधानमंत्री के अमेरिका  से आने के बाद कैबिनेट इसे वापस लेने का फैसला कर सकती है।

 राहुल के इस बयान से कुछ यक्ष प्रश्न उठ रहे हैं-

१. सवाल यह है कि जब दो बार कैबिनेट और एक बार कांग्रेस कोरगु्रप में अध्यादेश के मसौदे पर चर्चा हुई थी तब राहुल गांधी चुप क्यों रहे।
२. इससे पहले राज्यसभा में बहस के बाद संसद की समिति के पास बिल का मसौदा भेजा गया था तब क्या राहुल को इसके बारे में पता नहीं था।
३. इस अध्यादेश के मसौदे के बारे मेंर राहुल गांधी को विश्वास में नहीं लिया गया हो ऐसा भी नहीं लगता। जिस विषय पर सभी विपक्षी दलों को विश्वास में लिया गया हो उसके बारे में राहुल गांधी को नहीं बताया गया हो ऐसा होने की संभावना नहीं के बराबर है। आखिर कांग्रेस के उपाध्यक्ष हैं वे।
४. पूरी कैबिनेट के फैसले को नानसेंस या बकवास और फाडक़र फैंकने लायक कहकर प्रधानमंत्री पद की संवैधानिक गरिमा भी गिराई। क्या उन्होंने इसके साइड इफैक्ट पर विचार किया था।
५. जब प्रधानमंत्री देश में न हों और उनकी अमेरिकी राष्ट्रपति बोराक ओबामा से बातचीत होने वाली हो ऐसे में अंतरराष्ट्रीय समुदाय को यह संकेत देना कि पावर सेंटर कहीं और है प्रधानमंत्री के सर्वोच्य संवैधानिक पद की अवमानना नहीं है।
६. कहीं ऐसा तो नहीं कि भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज और अरूण जेटली के राष्ट्रपति के समक्ष जताए गए विरोध के बाद कांग्रेस ने भी अपना सुर बदल लिया। पहले सर्वदलीय बैठक में भाजपा इस अध्यादेश के समर्थन में थी लेकिन आरएसएस की नाराजगी के चलते भाजपा भी इस अध्यादेश के विरोध में आ गई।
७. दोपहर में 1 बजे अपनी ही पार्टी की केबिनेट के फैसले को बकवास बताने वाले राहुल गांधी ने रात को 12  बजे प्रधानमंत्री को एक पत्र लिखकर कहा कि उनकी प्रतिक्रिया का मसकद उनकी भावनाओं को ठेस पहुंचाना नहीं था। यानी कहीं न कहीं डेमेज कंट्रोल की प्रक्रिया भी चल रही है। उल्लेखनीय है कि इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री ने शुक्रवार शाम कांग्रेस आलाकमान सोनिया गांधी से बात की थी। यानी बयान देने से पहले राहुल गांधी ने  इसके साइड इफेक्ट के बारे में नहीं सोचा था।
८. राहुल गांधी चाहे तो आज मनमोहसिंह को हटाकर प्रधानमंत्री बन सकते हैं। बन जाएं, लेकिन जब तक नहीं बनते तब तक इस पद की मर्यादा को नानसेंस जैसे शब्दों से कम नहीं करें। उनके इस बयान ने जाने-अनजाने ही यह तय कर दिया है कि यह मनमोहनसिह की चलाचली की बेला है।
९. गैंग रेप, अन्ना आंदोलन जैसे महत्वपूर्ण घटनाओं के दौरान चुप्पी साधने के राहुल पर आरोप लगते रहे हैं। कहीं दागी जनप्रतिनिधियों के मुद्दे पर इन आरोपों को धोने के मकसद से तो राहुल ने कहीं यह बयान नहीं दिया।
१०. अपराधी जनप्रतिनिधियों के मुद्दे पर मध्यम वर्ग की नाराजगी तो कहीं इसके मूल में नहीं है। कारण कि राहुल को अपनी यूथ ब्रिगेड से लगातार इस आशय का फीडबैक मिल रहा था।


जल्दबाजी इसलिए 

दरअसल राज्यसभा में इसी बिल को सदस्यों के विरोध के चलते स्थाई समिति को भेज दिया है और वहां समय लग सकता है इसलिए कांग्रेस कोरग्रुप, और विपक्षी दलों के प्रतिनिधियों की आमराय के बाद केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने इस पर अध्यादेश लाने का फैसला किया  और उसे पास कर राष्ट्रपति को भेज दिया। दरअसल 150 से अधिक सांसदों और 1300 विधायकों पर न्यायालयों में आपराधिक प्रकरण चल रहे हैं। चारा घोटाले पर लालू यादव पर 30 तारीख को फैसला आना है। ए राजा और कनिमोजी जैसे कई पूर्व मंत्री दागी हैं।

क्या है इस अध्यादेश में

इस अध्यादेश में लिखा है कि दो साल से अधिक की सजा मिलने पर सांसदों और विधायकों को तीन माह में अपील करने का अधिकार मिलेगा। उनकी सदस्यता पर आंच नहीं आएगी। यानी वे माननीस सदस्य बने रहेंगे। इस दौरान उन्हें भत्ता और संसद या विधानसभाओं में वोटिंग का अधिकार नहीं रहेगा। इसलिए जनप्रतिनिधित्व कानून में ये संशोधन प्रस्तावित हैं। 

यह है राष्ट्रपति की अध्यादेश लाने की शक्ति

राष्टपति ने संविधान के अनुच्छेद 123 के तहत राष्टपति अध्यादेश जारी कर सकता है। लेकिन ऐसा वह तभी कर सकता है जब संसद का सत्र न चल रहा हो और उसे इस बात का  समाधान हो जाए कि वर्तमान परिस्थितियों में कार्रवाई करने के लिए ऐसा करना जरूरी हो। उदाहरण के तौर पर दिल्ली में दामिनी के साथ हुए सामूहिक बलात्कार कांड के खिलाफ देशव्यापी नाराजगी के बाद देश के आपराधिक कानून में बदलाव के लिए राष्ट्रपति ने अध्यादेश जारी किया था। बाद में संसद ने इसे पास कर कानून बना दिया।

देश में कानून पास कराने के दो ही तरीके हैं-

1 सत्र के दौरान संसद के दोनों सदन कानून को पास कर दे और फिर राष्ट्रपति उसे स्वीकृत कर दें।
2 पहले राष्ट्रपति अध्यादेश से एक कानून जारी कर दें और फिर संसद के दोनों सदन उसे पास कर दे। ऐसा करने के लिए राष्ट्रपति का संविधान के अनुच्छेद- 123  के तहत संतुष्ट होना जरूरी है।

तो राष्ट्रपति कर सकत हैं वीटो का प्रयोग

 अगर राष्ट्रपति के संकेत के बाद केन्द्रीय मंत्रिमंडल इसे वापस  नहीं लेता है तो राष्ट्रपति इसे अपने वीटो पावर का इस्तेमाल वापस कर सकता हैं। अगर इसके बाद भी केन्द्रीय मंत्रिमंडल को इस अध्यादेश के मसौदे को पास करवाना हो तो कानून के रूप उसे संसद से पारित करवाकर राष्ट्रपति को भेजना होगा।  राष्ट्रपति एक बार और इसे वापस कर सकता है । इसके बाद संसद से फिर उसे पारित कर दिया तो वह कानून मान लिया जाएगा। फिर राष्ट्रपति की आपत्ति की कोई कीमत नहीं है।
 

जीरो वोट व्यवस्था तो पहले से लागू है सुप्रीम कोर्ट ने उसे सिर्फ मशीन मे लाने की व्यवस्था करने को कहा है




 सुप्रीम कोर्ट ने वोटिंग मशीन में ' इनमें से कोई नहीं ' का विकल्प देने केन्द्र सरकार और  केन्द्रीय निर्वाचन आयोग आदेश दिया है। वास्तव में यह  राइट टू रिजेक्ट की सौगात नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश में तथ्यों में कुछ भी नया नहीं है वरन दी गई व्यवस्था में नयापन है। कारण कि जीरो या नकारात्मक  वोट की व्यवस्था इलेक्शन रूल में पहले से ही मौजूद  है। यह बात और है कि इसके बारे में कम ही लोगों को पता था। पिछले  दस साल से प्रिंट मीडिया लगातार इसके बारे में छाप रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने इसमें जो खास बात की है वह यह कि इस प्रावधान को वोटिंग मशीन के स्विच के रूप में लाने को कहा है। इससे ज्यादा से ज्यादा लोगों को इसके बारे पता हो और अधिकारी जीरो वोट की खानापूर्ति में  पहले की तरह टालमटोल न करें। वोटिंग मशीन में यह आप्शन आने से वोटो की गिनती में भी पता चल जाएगा कि कितने लोगों ने ' कोई नहीं ' का विकल्प चुना है।
देश में पहले से ही लागू है इस बारे में कानून

                        Conduct of Elections Rules, 1961
(Statutory Rules and Order)

49-O. Elector deciding not to vote.—If an elector, after his electoral roll number has been duly entered in the register of voters in Form 17A and has put his signature or thumb impression thereon as required under sub-rule
(1) of rule 49L, decided not to record his vote, a remark to this effect shall be made against the said entry in Form
17A by the presiding officer and the signature or thumb impression of the elector shall be obtained against such
remark.

यह है कानून

 इलेक्शन रूल जनप्रतिनिधित्व कानून  की धारा ४९/ओ के अनुसार अगर चुनाव में खड़े किसी भी प्रत्याशी को वोट नहीं देना चाहते हैं तो आप मतदान केन्द्र के पीठासीन अधिकारी से फार्म १७ ए मांगकर उसमें अपनी नापसंदगी जता सकते हैं। इसकी बाकायदा रजिस्टर में इंट्री का प्रावधान है। इस पर अभी आपको हस्ताक्षर करने होते हैं या अंगूठे का निशाना लगाना होता  है।  इसे जीरो वोट भी नाम दिया गया है।

परेशानी यह थी

 इस नियम का ज्यादातर लोगों को पता नहीं था। सरकार ने भी इसका प्रचार-प्रसार नहीं किया। कई बार चुनाव बूथ के पीठासीन अधिकारी भी फार्म और रजिस्टर देने में आनाकानी करते थे।

अब यह होगा

 सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद इलेक्शन रूल ४९/ओ, फार्म १७ ए और रजिस्टर के बजाय वोटिंग मशीन के एक स्विच में शामिल होगा। इसलिए इसका आप बखूबी इस्तेमाल कर सकेंगे। यानी  कानून के प्रावधान पर ढंकी नहीं पता होने की चादर हट गई है।

 


यह सर्वोच्य अदालत ने 


 सर्वोच्य न्यायालय के  मुख्य न्यायमूर्ति पी सताशिवम, न्यायमूर्ति  रंजन गोगोई  और न्यायमूर्ति रंजनप्रकाश  देसाई की पीठ ने शुक्रवार को दिए इस फैसले में कहा कि लोकतंत्र को जीवंत बनाए रखने के लिए मतदाताओं के पास इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन या मतपत्र नन आद न अबव या इनमें से कोई नहीं का विकल्प होना चाहिए। इस विकल्प के जरिए सभी मतदाताओं को खारिज करने  का जीरो या नकारात्मक  मतदान करने का अधिकार मतदाताओं के पास होना चाहिए। पीठ का मानना था कि  नकारात्मक मतदान की व्यवस्था से ही राजनीति दल अपने उम्मीदवार के चयन में जनता की भावनाओं का भी ध्यान रखेंगे। ऐसा करने से ही चुनाव व्यवस्था में धीरे-धीरे बदलाव आएगा। पीठ ने निर्वाचन आयोग को आदेश दिए कि वे ईवीएम मशीन में नन आफ द अबव के एनओटी का अतिरिक्त बटन और मतपत्र में ही ऐसा विकल्प देने के निर्देश दिए। साथ ही पीठ ने केन्द्र सरकार को निर्देश दिए कि वह इस संबंध में आर्थिक और व्यवस्थागत संसाधन जुटाने में निर्वाचन आयोग को पूरा सहयोग प्रदान करे।












गुरुवार, 26 सितंबर 2013

नमो ने कार्यकर्ताओं को साधा, शिव ने साधा सबको




सात लाख कार्यकर्ताओं की जनमेदनी के बीच राजनीतिक दांव-पेंच के भाषणों को यूं समझें
भोपाल में पं. दीनदयाल उपाध्याय के जयंती के मौके पर भाजपा की ओर से जंबूरी मैदान में आयोजित कार्यकर्ता कुंभ में  सवा सात लाख कार्यकर्ताओं के सामने नरेन्द्र मोदी और शिवराजसिंह चौहान के आगामी विधानसभा चुनाव के लिए चुनावी बिगुल फूंक दिया है। कार्यकर्ताओं की भूमिका को केन्द्र में रखकर कांग्रेस पर इस बार हल्ला बोला गया है। बाकी नेता तो रस्म अदायगी के तौर पर ही सीमित रहे। मोदी ने भी प्रदेश के मुद्दों, एकात्म मानववाद की विचारधारा और कार्यकताओं की भूमिका पर फोकस रखा तो शिवराज ने अपने कार्यकाल में विकास की उपलब्धियों और फिर एबीसीडी  के माध्यम से कांग्रेस के भ्रष्टाचार पर हल्ला बोला। राजनीतिक तौर पर बात करें तो मोदी, आडवाणी कार्यकर्ताओं और शिवराज को साधते नजर आए। भाषण देने से पहले आडवाणी ने मोदी से रूख नहीं मिलाया लेकिन भाषण के बाद उनसे न सिर्फ बात की वरन ् उनके कंघे पर हाथ रखकर काफी देर खड़े भी रहे। मंच में कार्यकर्ताओं के सामने मोदी ने आडवाणी के दो बार पैर छुए। दूसरी ओर शिवराज ने पूरे भाजपा संसदीय बोर्ड को मंच पर लाकर और इतने बड़े सफल सम्मेलन का आयोजन कर अपनी क्षमता साबित की है। इस दौरान कहीं बातो का क्या मतलब है जानें यहां पर..
                        मोदी ने कार्यकर्ताओं और प्रदेश के मुद्दों को रखा केन्द्र में
१. दीनदयाल उपाध्याय और एकात्म मानववाद का स्मरण : भारतीय जनसंघ के संस्थापक पं. दीनदयाल उपाध्याय की जयंती पर आयोजित कार्यक्रम में मोदी प्रसंग को ध्यान में ररखते हुए पं. दीनदयाल उपाध्याय की विचारधारा  और एकात्म मानववाद पर बात की।  उन्होंने शिवराजसिंह को याद दिलाया कि वे पं दीनदयाल उपाध्याय पर कैसे धारा प्रभाव भाषण देते थे। इससे हम जैसे लोगों को दीनदयालजी की विचारधारा को समझने में मदद मिलती थी। वे खुद एक बार उनका भाषण सुनने के लिए गए थे।  उन्होंने यह भी कहा कि शिवराज ने मुख्यमंत्री बनने के बाद एकात्म मानववाद की विचारधार को आत्मसात करते हुए समाज की अंतिम पंक्ति में खड़े अंतिम व्यक्ति के आंसू  पोंछने का काम किया है।
मतलब: पं. दीनदयाल उपाध्याय की जंयती पर कार्यक्रम था तो प्रसंगवश इस पर बोलना लाजिमी भी था। साथ ही उन्होंने पं. दीनदयाल उपाध्याय पर देशभर में भाषण दे चुके शिवराजसिंह चौहान की तारीफ कर उन्होंने साधने की कोशिश की।   शिवराजसिंह चौहान जब भारतीय युवा मोर्चा का राष्ट्रीय नेतृत्च संभाल रहे थे तब उन्होंने पं दीनदयाल उपाध्याय पर देश के हर कोने में भाषण दिए थे।
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२. कार्यकर्ताओं से सीधी बात: कार्यकताओं से सीधी बात करते हुए उन्होंने कहा कि २५ सितम्बर २०१६ को पं. दीनदयाल उपाध्याय की जन्म शताब्दी आने वाली है। ऐसे में उस समय केन्द्र और ज्यादातर राज्यों में भाजपा की सरकार हो और ऐसा आप जैसे कार्यकर्ताओं की मदद से ही हो सकता है। इसके लिए जरूरी है कि कार्यकर्ता अधिक से अधिक लोगों को बूथ पर लाकर मतदान करवाएं। उन्होंने कार्यकर्ताओं से मुखातिब होकर कहा कि कांग्रेस गांधीजी की एक इच्छा पूरी नहीं कर सकी क्या आप उसे पूरी कर सकेंगे। जब कार्यकताओं ने समवेत स्वर में हां कहा तो उन्होंने कहा कि गांधीजी की इच्छा थी कि आजादी के बाद कांग्रेस को खत्म कर दिया जाए। कांग्रेसी नेताओं ने उनकी बात नहीं सुनी अब भाजपा के कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारी है कि वे गांधीजी की इच्छा को पूरा करें। उन्होंने कांग्रेस मुक्त बूथ और कांग्रेस मुक्त देश का आह्वान किया।

मतलब: पूरे प्रदेश के ५१००० बूथों आए लगभग सवा सात लाख कार्यकर्ताओं  से सीधा संवाद करते हुए मोदी ने उन्हें उनका महत्व समझाया। इसका मतलब साफ है कि विधानसभा और लोकसभा चुनाव में भाजपा का पूरा फोकस वोटिंग बढ़वाने पर है। इसी में छुपी है सफलता की चाबी। और यह केवल कार्यकताओं की मदद से  संभव है। उन्होंने कहा कि देश में भाजपा के पक्ष में चल रही आंधी जब वोटिंग मशीनों में कैद होगी तभी देश का फायदा होगा। यानी कार्यकर्ता सर माथे पर।
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३. मध्यप्रदेश से संबधों को याद किया : मोदी ने अपने भाषण में मध्यप्रदेश के संगठन मंत्री रहने के दौर को याद करते हुए कु शाभाउ ठाकरे, सुंदरलाल पटवा और कैलाश जोशी जिक्र करते हुए कहा कि वे प्रदेश की हर विधानसभा क्षेत्र तक जा चुके हैं।

मतलब: कार्यकर्ताओं को संदेश देने की कोशिश की कि वे मध्यप्रदेश के चप्पे-चप्पे से परिचित हैं और वे किसी को नहीं भूलते। वैसे वे प्यारेलाल खंडेलवाल का नाम लेना भूल गए। पटवा शासनकाल में भाजपा की गुटबाजी के मूल में मोदी ही थे। खंडेलवाल के कंघे पर बंदूक रखकर मोदी ने पटवा की नाक में खूब दम किया था।
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४. राज्य के मुद्दों से कांग्रेस को घेरा: मोदी ने बिना नाम लिए दिगविजयसिंह के शासन काल में प्रदेश की मिट्टी पलीत होने की बात कहकर कांग्रेस को घेरा । उन्होंने कहा कि उस समय तीन हजार मेगावाट बिजली भी नहीं थी। सुदंरलाल पटवा के करे कराए पर कांग्रेस ने पानी फेर दिया। उसके दस साल बाद बाद भाजपा आई और दस साल में ही दस हजार मेगावाट बिजली हो गई। उन्होंने कहा कि दिल्ली में बैठे हुक्मरान भाजपाशासित राज्यों की मदद में अड़चनें डाल रहे हैं। उन्होंने कहा कि अगर सरदार सरोपर बांध में गेट लग जाएं तो मध्यप्रदेश को हिस्से में ८५० मेगावाट बिजली आएगी। लेकिन केन्द्र सरकार गेट नहीं लगने दे रही है। उन्होंने जनता को आगाह किया कांग्रेसी दस साल से भूखे हैं अगर वे सत्ता में आए तो प्रदेश को ही हजम कर जाएंगे।
मतलब: चूंकि मध्यप्रदेश में चुनाव है इसलिए उन्होंने प्रदेश के मुद्दों से कांग्रेस को घेरा।भाजपा शासित राज्यों की सरकारों की सफलता गिनाई। और जनता को याद दिलाया कि तीसरी बार भी शिवराज को जिताएं अगर कांग्रेस आ गई तो प्रदेश फिर से बीमारू राज्य बन सकता है।
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५. सीबीआई  और भ्रष्टाचार के बहाने कांग्रेस पर निशाना : मोदी ने कहा कि इस चुनाव में कांग्रेस नहंी सीबीआई चुनवा लड़ेगी कहकर सीबीआई के दुरूपयोग पर कांग्रेस को घेरा उन्होंने केन्द्र को चेताया कि वह सीबीआई के दुरूपयोग से बाज आए। उन्होंने इस दौराना आपातकाल की भी याद दिलवाई। मोदी से पहले शिवराजसिंह ने भाषण दिया था। इसमें उन्होंने कांग्रेस पर भ्रष्टाचार की एबीसीडी पढ़ी। उन्होंने कांग्रेस के अब तक के  घोटालों को ए से लेकर जेड की वर्णमाला के क्रम में पढ़ा। मोदी ने इसे आगे बढ़ाते हुए कहा कि अगर इन घोटालों की रकम जोड़ी जाए और उसे लिखना शुरू किया जाए तो पहला शब्द यदि भोपाल में लिखें तो अंतिम शब्द जनपथ पर लिखा जाएगा।
मतलब: भ्रष्टाचार पर तो निशाना ठीक है पर सीबीआई के दुरूपयोग पर का मुद्दा उठाकर यह संकेत देने की कोशिश की कि सीबीआई भाजपा नेताओं सहित उन्हें भी निशाना बना सकती है। उल्लेखनीय हैै कि दो दिन पहले ही एक फर्जी एनकाउंटर मामले में सीबीआई ने मोदी मंत्रिमंडल के दो सहयोगियों से पूछताछ की थी।
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शिवराज ने सभी को साधने के बाद कांग्रेस पर बोला हल्ला
६. शिवराज  का सधा भाषण : शिवराज ने अपने भाषण में अपनी उपलब्धियों को बताया और कांग्रेस के भष्ट्राचार पर हमला करते हुए पूरी एबीसीडी सुना दी। उन्होंने कांग्रेस मुक्त बूथ का नारा देकर कार्यकर्ताओं से लोकसभा और विधानसभा चुनाव में अधिक से अधिक मतदाताओं को बूथ तक लाने का आह्वान किया।  उन्होंने कहा कि कांग्रेस भ्रष्टाचार और पाप से सजी-धजी पार्टी है और इसे दिल्ली से उखाड़ फैंकना है। कार्यकर्ता कुंभ में आई कार्यकर्ताओं की विशाल भीड़ को देखकर उन्होंने कहा कि कि भाजपा प्रदेश में सत्ता की हैट्रिक लगाएगी। इसके बाद केन्द्र में भी भाजपा की सरकार बनेगी। इससे कांग्रेसी डरे हुए हैं। वह मुझे सीबीआई के नाम से डराना चाहती है लेकिन मैँ डरने वाला नहीं हूं। मैं कहता हूं छापा मारना हो तो दामादजी के यहा मारें और फिर उन्होंने फेसबुक पर चल रही कांग्रेस के भ्रष्टाचार की  एबीसीडी पढक़र सुना दी। उन्होनें गरीबों, पिछड़ों, महिलाओं और युवाओं के लिए लिए प्रदेश सरकार की ओर से चलाई जा रही योजनाओं का जिक्र भी किया।
मतलब: सभी को साधा, अपनी दस साल की उपलब्धियां गिनाई और कांग्रेस को चुनौती देते हुए कहा कि सीबीआई से मैं डरता नहीं और कांग्रेस को चेताया हमारे पास इतने कार्यकर्ताओं की फौज है हम चुनाव में तुम्हें देख लेंगे।
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७. अन्य भाषण : आडवाणी, राजनाथसिंह, अनंत कुमार, वैंकया नायडू, मुरली मनोहर जोशी के भाषण रस्म अदायगी ही रहे। उमा भारती ने जरूर अपने भाषण में बिना नाम लिए दिगविजयसिंह पर हमला करते हुए कहा कि मि. भंटाढार ने अपने दस साल के कार्यकार  में प्रदेश को बीमारू बना कर रख दिया। भाजपा की ओर से उन्होंने  बिजली , पानी और सडक़ के मुद्दों पर कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर  प्रदेश का नया इतिहास लिखने की शुरुआत की। उन्होंने यह भी कहा कि उन्होंने तिरंगा फहराने के मुद्दे पर मुख्यमंत्री पद छोडऩा पड़ा था। उन्होंने अप्रत्यक्ष तौर पर यह जताने की कोशिश की कि प्रदेश में भाजपा की सरकार लाने में उनका भी योगदान था और उन्हें जिस तरीके से हटाया गया वह ठीक नहीं था। अरूण जेटली और सुषमा स्वराज ने मंझे अंदाज ूमें छोटा लेकिन प्रभावी भाषण देकर कार्यकताओं को लुभाया। सुषमा स्वराज ने अपने भाषण में शिवराज की योजनओं का जिक्र तो किया पर नमो मंत्र के जाप से परहेज ही रखा। प्रदेशाध्यक्ष नरेन्द्र तोमर ने कार्यकर्ता कुंभ की शुरूआत करते हुए इसके बार में जानकारी दी। यानी कार्यक्रम एक नरेन्द्र से शुरू हुआ और दूसरे नरेन्द्र पर खत्म।
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निष्कर्ष : मंच पर वाजपेयी को छोडक़र भाजपा संसदीय बोर्ड के सभी सदस्य मौजूद थे। इससे मुख्यमंत्री शिवराजसिंह ने यह जताने की कोशिश की से सभी की पसंद हैं। यानी उन्होंने सभी को साध लिया। मोदी की भी तारीफ की। दूसरी ओर मोदी आडवाणी, शिवराज और कार्यकर्ताओं को साध रहे थे। मोदी ने पितामह के पांव छुए पर उन्होंने ध्यान नहीं दिया। कार्यकर्ताओं के सामने मोदी ने आडवाणी के दो बार पैर हुए। भाषण के बाद आडवाणी के रूख में परिवर्तन आया। उन्होंने न केवल मोदी से बात की वरन उनके कंधे पर हाथ रखकर काफी देर तक बाद भी की। सुषमा नमो मंत्र जपने से बचती रहीं। मसलन बर्फ अभी सारी पिघली नहीं है.. पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त। हिंट इतनी है कि चंद्रबाबू नायडू के एनडीए में आने का इंतजार करें.. .. ..






शनिवार, 21 सितंबर 2013

नरेन्द्र मोदी को इसलिए कहते हैं नमो


पको पता ही है कि नरेन्द्र मोदी का शार्ट नेम है नमो । पर क्या आपको यह पता है उन्हें नमो नाम देने की क्यों जरूरत पड़ी और यह शब्द सबसे पहले कहां प्रयोग में लाया गया। जैसा कि आप जानते ही हैं कि नरेन्द्र शब्द में से न और मोदी शब्द में से मो लेकर नमो बनाया गया है। यानी यह नरेन्द्र मोदी का शार्टनेम है। यह नामकरण उनकी मां, बुआ आदि रिश्तेदारों ने नहीं वरन् गुजराती अखबारों ने किया है। दरअसल गुजराती अखबार में पहले पन्ने की लीड हमेशा ही आठ कालम की होती है और हैडिंग बड़े अक्षरों में रखा जाता है। ऐसे में जब हैडलाइन के अंत में नरेन्द्र मोदी लिखा जाता था तो हैडिंग पतली हो जाती थी। हैडिंग का आकार या तकनीकी भाषा में प्वाइंट साइझ बड़ा रखने के लिए नरेन्द्र मोदी को नमो लिखा जाता है। लगभग दस से बारह साल पहले यह प्रयोग शुरू हुआ था।
जैसे-
१. केन्द्र सरकार आर्थिक मोरचे पर विफल- नरेन्द्र मोदी
२. केन्द्र सरकार आर्थिक मोरचे पर विफल- नमो
२ नंबर वाले हैडिंग में कम शब्द होने से उसका आकार आसानी से बढ़ा किया जा सकता है।
दरअसल आवश्यकता अविष्कार की जननी है की तरह गुजराती अखबारों ने अपनी सुविधा के लिए नरेन्द्र मोदी को नमो बना दिया।
जब मैं २००३ में दैनिक भास्कर समूह के गुजराती अखबार दिव्य भास्कर की लांचिग के लिए तीन साल गुजरात रहा तब एक दिन हैडिंग में मैंने नमो शब्द पड़ा। मैने तब वहां पूछा कि ये नमो क्या है तो बताया गया कि यह मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी का शार्टनेम है और फिर मुझे वह कहानी मालूम हुई तो मैंने आपको बताई।