लालकिले से (भाग-18)
हे, गणतंत्र के एक अराजक मुख्यमंत्री -- -- हमारा गणतंत्र सदैव अमर रहेगा
१. लोकलुभावन अराजकता लोकतंत्र का विकल्प नहीं हो सकती - -प्रणव मुखर्जी राष्ट्रपति भारत गणराज्य
२. संविधान में यह कहीं नहीं लिखा की एक मुख्यमंत्री धरना नहीं दे सकता - अरविंद केजरीवाल, मुख्यमंत्री दिल्ली राज्य
भीड़ अराजक ही होती है। उसे नियंत्रण में लाकर अनुशासित या भागीदार बनाने की प्रक्रिया का नाम है गणतंत्र या रिपब्लिक । एक प्रक्रिया के माध्यम से उसी भीड़ से से कुछ गण चुनकर उन्हें ही उस अराजक भीड़ पर शासन करने का जिम्मा दिया जाता है। यह प्रक्रिया है लोकतंत्र या डेमाक्रेसी। गणतंत्र की यह प्रक्रिया यजुर्वेद के श्लोक- गणानां त्वां गणपति गुं हवामहे---- में निहित है। यानी गणों का पति या स्वामी ही गणेश यानी लीडर होता है। यानी हम सभी शुभ कामों के पहले एक ऐसे गणपति या लीडर को पूजते हैं जो अराजकता को अनुशासन और शासन में बदलता है।
केजरीवाल ने धरने के दौरान कहा मैं अराजक हूं। यानी वे चुने जाने के बाद भी अभी भी स्वीकार करते हैं कि- हां मैं अराजक हूं। उनकी कार्यशैली को देखें तो उसका आधार ही लोक लुभावन बाते हैं। यानी दोनों को मिला दें तो लोकलुभावन अराजकता अस्तित्व में आती है। यानी की महामहिम ने गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्र के नाम दिए अपने संदेश में केजरीवाल ने जनहितों की आड़ लेकर दिल्ली को धरने के माध्यम से 32 घंटे बंधक बनाने और लोकतंत्र की
लोगों को बिजली बिल नहीं भरने के लिए प्रेरित करना, बिना पैसे दिए बिजली का उपयोग करने के लिए प्रेरित करना, पूरे नहीं किए जा सकने वाले वादे करना, पुलिस को विद्रोह के प्रेरित करना, बिना अुनमति लिए धरना देना, निषेघाज्ञा तोडऩा और कौन सा गणतंत्र वाला बयान अराजकता का जीता-जागता नमूना है।
केजरीवाल ने गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर यह कहा कि संविधान में कहीं नहीं लिखा है कि मुख्यमंत्री धरना नहीं दे सकता। उनका मतलब शब्दत: लिखी बात की ओर ही है तो यह भी सवाल उठता है कि संविधान में कहीं यह भी नहीं लिखा है कि मुख्यमंत्री धरना दे सकता है। सवाल है कि क्या राज्य में कानून बनाने वाली सर्वोच्य संस्था विधायिका का प्रमुख कानून तोड़ सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली और केन्द्र सरकार को इसी बात पर नोटिस भी दिए हुए हैं।
अगर केजरीवाल जी जानना चाहते हैं कि उन्होंने धरना देकर संविधान को कैसे तोड़ा है तो भारत का संविधान खोलकर बैठ जाएं। भारत में कानून का शासन यानी रूल आफ ला को तोड़ा। भारत में रूल आफ यानी संविधान सर्वोच्य है।
१. संविधान की तीसरी अनुसूची में अनुच्छेद 75(4), 84(क), 99, 124(6), 148(2), 164(3), 173(क),188 और 219 को ध्यान में रखते हुए शपथ का प्रारूप बनाया है। यह शपथ तो अरविंद केजरीवाल ने रामलीला मैदान में हजारों लोगों के सामने ली थी। इसमें एक बात यह भी थी कि मैं अरविंद केजरीवाल विधि द्वारा प्रस्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखूंगा, मैं भारत की प्रभुता और अखंडता अक्षुण्य रखूंगा। सबसे पहले उन्होंने संविधान के प्रति निष्ठा और फिर एकता- अखंडता बनाए रखने की शपथ तोड़ी है।
२. कौन सा गणतंत्र कहकर उन्होंने संविधान और उसकी शपथ की अवमानना की है। आम तौर पर नक्सलवादी और प्रगतिवादी विचार के तौर इस प्रकार गणतंत्र दिवस की अवहेलना करते हैं। चुने हुए मुख्यमंत्री का ऐसा कहने का मामला पहली बार आया है।
३. विधि के शासन के नियमों को ताक पर रखकर खुद धरने पर बैठ गए। धरने के लिए न तो उन्होंने नियमानुसार अनुमति ली और न ही सुप्रीम कोर्ट के नियमों का पालन किया। दिल्ली में अनुमति के बाद सिर्फ जंतर मंतर पर धरना दिया जा सकता है। लोकतंत्र में धरना-प्रदर्शन को अपनी बात कहने का एक माध्यम माना जाता है इसलिए इस पर पूरी तरह रोक नहंीं है। अगर अरविंद केजरीवाल के लिए धरना देना इतना ही जरूरी था वे जंतर-मंतर, रामलीला मैदान पर सांकेतिक धरना दे सकते थे। सरदार सरोवर बांध के मुद्दे पर गुजरात के मुख्यमंत्री भी सांकेतिक धरना दे चुके हैं।
४. पुलिस को विद्रोह करने के लिए भडक़ाया। यानी राज्य या राष्ट्र के खिलाफ विद्रोह करने के लिए बात कही। सशस्त्र बलों के संदर्भ में ऐसा करना भारतीय दंड संहिता के तहत भी गंभीर किस्म का अपराध है।
५. गृहमंत्री मुझे यानी केजरीवल को कैसे बता सकता है कि दिल्ली का मुख्यमंत्री कहां पाए न जाए यह कहकर उन्होंने यह संकेत देने का प्रयास किया कि वे संविधान से उपर हैं। इस देश में संविधान ही सर्वोपरि है बाकी सब उससे नीचे। यह भारत के संघीय ढांचे को भी चुनौती है। अगर कहीं निशेधाज्ञा लगी है तो मुख्यमंत्री भी उसे नहीं तोड़ सकत हेैं। यानी फिर उन्होंने कानून के शासन को तोड़ा हैद्ध
राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी इस पद पर आने से पहले कंाग्रेसी थे इसलिए कुछ लोग उनके भाषण को राजनीति के चश्मे से भी देख रहे हैं। कारण कि भाषण को सरकार की नीति के रूप में देखा जाता है। अगर ऐसा भी है तो इसमें एक दूसरी किस्म की अराजकता की बात भी छुपी है। राष्ट्रपति ने जिस लोकलुभावन अराजकता का जिक्र किया है उसमें एक तो केजरीवाल के धरने के तौर पर दिख रही है और दूसरी जो दिख नहीं रही है जो कि ज्यादा खतरनाक है। वोट पाने के लिए पहले लोकलुभावन वादे करना फिर उन्हें पूरे नहीं करना या लागू करने के लिए शर्तें लागू करना जनता को पहले परेशान करती है फिर उन्हें लोकतांत्रिक प्रकिया से दूर करती है। इससे जनता मन में यह धारणा बना लेती है कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया से कुछ होना जान नहीं है। यानी मानसिक तौर पर पहले लोकतंत्र के प्रति नाराजगी का भाव आता है। एक समय बाद वह अराजकता के भाव में बदलने लगता है। यह लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है।
लेकिन चिंता की बात नहीं है हमारे संविधान निर्माता लोग दूरगामी थे। उन्होंने भविष्य में बनने वाली स्थितियों की पहले से ही कल्पना कर ली थी इसीलिए उन्होंने देश को व्यक्ति नहीं संविधान द्वार शासित बनाया और यही हमें इसी अराजकता से निपटने की ताकत देती है। तभी सुप्रीम कोर्ट जिसके पास कि संविधान की व्याखया करने का एक मात्र और अंतिम अधिकार है केन्द्र और दिल्ली सरकार ने धरना देने के अधिकार और पुलिस की मूकदर्शकता पर सवाल उठाए हैं। मान के चलिए कि अरविंद केजरीवाल, केन्द्र सरकार और दिल्ली पुलिस को सुप्रीम कोर्ट की कम से कम फटकार तो तय है। साथ ही कोर्ट यह भी तय कर देगा कि मुख्यमंत्री धरना दे सकता है या नहीं और सांकेतिक रूप स अगर दे भी सकता है तो किस अनुशासन के साथ। कारण कि देश की सर्वोच्य अदालत के सामने प्रश्न है कि क्या कानून बनाने वाला कानून तोड़ सकता है। तय है जवाब नहीं ही आएगा।
यानी नारा लगाईए हमारा गणतंत्र अमर रहे।