शनिवार, 28 सितंबर 2013

खाता न बही, राहुल कहें वही सही


देश के गैर गांधी प्रधानमंत्रियों की कार्यशैली के प्रति नाराजगी जताना गांधी परिवार का पुराना शगल है। लोकतंत्र है तो सभी को अपनी बात रखने का हक है लेकिन  गांधी  परिवार के सदस्य तभी नाराजगी जताते हैं जब उन्हें कांग्रेस की राजनीति के केन्द्र में आना होता है। याद कीजिए नरसिम्हाराव के प्रधानमंत्री रहते रायबरेली में आयोजित सभा में सोनिया गांधी ने राव की कार्यशैली पर सवालिया निशान उठाए थे। उसके बाद भी सोनिया कांग्रेस की राजनीति में सक्रिय और प्रभावी हुई। अब राहुल गांधी ने उससे भी एक कदम आगे बढ़ते हुए दागी जनप्रतिनिधियों के मुद्दे पर केन्द्रीय मंत्रिमंडल और कांग्रेस कोर के फैसल को बकवास और फाडऩे लायक बता दिया। यानी कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और उनके सलाहकारों पर भी राहुल की अंगुली उठी है।

यानी कांग्रेस अब राहुल युग की ओर 

दागी जनप्रतिनिधियों पर अध्यादेश तो बहाना है राहुल ने इसके बहाने यह साबित करने की कोशिश की है कि अब कांग्रेस में उनके बिना तो कोई निर्णय हो ही नहीं सकता। और यदि किसी ने किया तो उसका हाल ही नानसेंस उर्फ बकवास की ही तरह होगा। यानी सत्ता के केन्द्र को उन्होंने अपनी ओर घुमाना शुरू कर दिया है। वे या उनकी शह पर उनके समूह के लोग भी अब केन्द्र सरकार की कार्यप्रणाली पर और भी सवाल उठा सकत हैं। मसलन अपनी ही सरकार को घेर कर वे ये संदेश देने की कोशिश कर सकते हैें की सत्ता और संगठन कांग्रेस की दो अलग-अलग धुरियां हैं। लोकसभा चुनाव तक युवराज और उनकी टीम इस तरह के और भी ड्रामे कर सकती है। ताकि चुनाव का बैटन मनमोहन के हाथ से राहुल के हाथ में दिया जा सके।

सोनिया गांधी और उनके सलाहकारों के प्रति भी रोष 

राहुल ने जिस फैसले पर सवाल उठाए थे उसमें उनकी माता, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया  और उनके सलाहकार भी शामिल थे। यानी उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष और उनके सलाहकारों पर भी सवाल उठाए हैं। दरअसल सोनिया गांधी यूपीए-1 में जितनी प्रभावी थी अब उतनी नहीं रहीं। यूपीए-2 गठबंधन राजनीति की विवशता के नाम पर उनके सलाहाकर ज्यादातर मुद्दों पर उनसे सहमति बनवा लेते हैं। जैसा कि दागी जनप्रतिनिधियों के मुद्दे पर हुआ। दरअसल राहुल गांधी के जेहन में कहीं न कहीं यह बात भी होगी कि उनके पिता राजीव गांधी की छवि कुछ सलाहकारों के कारण काफी प्रभावित हुई थी। इसी कारण राजीव को सत्ता से बाहर जाना पड़ा था। दूध का जला छांछ को भी फंूक-फंूककर पीता है लिहाजा राहुल ने यह कोशिश भी है कि अब इन सलाहकारों को कांग्रेस की निर्णय प्रक्रिया से  जितना दूर रखा जाए उतना ही कांग्रेसकी सेहत के लिए अच्छा होगा। सोनिया के सलाहकारों में ज्यादातर कांगे्रस के पुराने नेता हैं। राहुल ने कहा था कि अब सभी दलों को राजनीति के नाम पर किए जाने वाले समझौते बंद करने होंगे। यानी वे नहीं चाहते कि सोनिया समझौते वाली राजनीति करे-खासकर यूपी और बिहार के सबंध में।

राहुल के सलाहकारों की राजीतिक समझ कम

राहुल के सलाहाकार ज्यादातर उन्हीं की उम्र के युवा हैं। कुछ राजनीति के जुड़े हैं तो कुछ प्रबंधन से। इन्हें राजनीति का अनुभव कम है। अन्यथा राहुल को ये इस तरह बयान नहीं देने देते। अनुभव की कमी से ही ये इस बयान से होने वाले साइड इफैक्ट पर विचार नहीं कर सके। अन्यथा वे सलाह देते कि कांग्रेस वर्किग कमेटी की बैठक बुलाकर वे उसमें अपनी नाराजगी रखते और अध्यादेश को खारिज करने की मुहर कांग्रेस वर्किग कमेटी से ही लगवाते। इससे उनका राजनीति कद बढ़ता। अभी राहुल के विरोध को राजनीतिक नासमझ भी समझा जा रहा है। पिछले कई दिनों से सत्ता- संगठन के पुराने सलाहकारों और राहुल के नए सलाहकारों के बीच शीतयुद्ध की फुसफुसाहट की सुनाई दी। लेकिन ये सलाहकार सिर्फ सत्ता के केन्द्र के आस-पास रहने वाले हैं।  उन्हें व्यक्ति से नहंी अपनी महत्वाकांक्षाओं से मतलब होता है।  दागी अध्यादेश के जरिये ही राहुल ने अपनी महत्वाकांक्षाओं की पंतग को राजनीति के आसमान में छोड़ दिया है। राहुल के बयान के बाद दागी विधेयक की वकालत करने वाले कांग्रेसी नेता भी मिमियाते नजर आ रहे हैं। इससे तो यही लगता है कि अब कांग्रेस में यही चलेगा कि खाता न बही, राहुल कहे वही सही।

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